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शुक्रवार, 29 मई 2015

आर्थिक विकास के आंकड़ों की बाज़ीगरी

                                                         देश के आर्थिक विकास के लिए बनाये गए रोड मैप पर चलते हुए कई बार ऐसी परिस्थितियां भी सामने आ जाती हैं जिनमें अच्छे प्रयासों के बाद भी उतना अच्छा परिणाम सामने नहीं आ पाता है और २००८ के वैश्विक संकट के दौरान इस बात को भारत समेत पूरी दुनिया ने बहुत अच्छी तरह से समझा भी है पर कई बार केवल राजनैतिक आरोपों-प्रत्यारोपों के चलते ही हमारे देश में राजनीति उस घटिया स्तर पर पहुँच जाया करती है जहाँ पर उसे नहीं होना चाहिए. विश्व में संभवतः भारत ही एकमात्र ऐसा देश होगा जहाँ देश की विकास दर को भी राजनैतिक उपलब्धि के तौर पर बयान किया जाता है जबकि इस स्थिति में वास्तविकता कुछ और ही हुआ करती है. कई बार अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय मजबूरियां ऐसी हो जाती हैं कि देश के विशुद्ध राजनैतिक नेता दीर्घावधि में होने वाले नुकसानों को समझ ही नहीं पाते हैं और लम्बे समय तक उनका दंश देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता ही रहता है.१९९८ में वाजपई सरकार द्वारा किये गए परमाणु परीक्षणों ने भले ही देश के कुछ लोगों के अहम को संतुष्ट किया हो पर उसके दुष्प्रभाव आज तक देश की प्रगति पर देखे जा सकते हैं क्योंकि वैश्विक प्रतिबंधों के चलते भारत की प्रगति को उस समय से आज तक वो आयाम नहीं मिल पाये जो उस समय आसानी से उपलब्ध हो सकते थे.
                                 पूरी दुनिया में यह भारत ही था जिसने अपनी मिश्रित अर्थव्यवस्था के चलते २००८ के वैश्विक आर्थिक संकट को अच्छी तरह से झेला था जबकि उस समय अमेरिका तक मंदी का शिकार हो गया था और वहां नए रोजगार तो समाप्त ही हो चुके थे साथ ही पुराने लोगों की नौकरियों पर भी बन आई थी. वैश्विक मंदी पर पूरी दुनिया में यदि कोई निष्पक्ष आंकलन किया जाये तो संभवतः उस संकट से बच निकलने के बाद भी भारत सरकार को उसका कोई श्रेय नहीं मिला बल्कि उस पर इस बात की तोहमत लगायी जाने लगी कि उसने ही देश को आर्थिक संकट में धकेल दिया है ? इस तरह के मुद्दों पर लगातार राजनीति कर देश को यह समझाने का प्रयास लगातार किया जाता रहा कि सरकार की नीतियों के कारण ही आर्थिक मंदी आ गयी है तथा सरकार किसी भी तरह के निर्णय लेने में सक्षम ही नहीं है ? आर्थिक मामलों की समझ न होने के कारण पिछले चुनावों में जनता ने अपने जनादेश में यह मान ही लिया कि मनमोहन सरकार ने देश की आर्थिक प्रगति को बाधित कर दिया था पर आज भी मोदी सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी वैश्विक कारणों से देश की आर्थिक विकास दर में उल्लेखनीय प्रगति दिखाई नहीं दे रही है.
                                आज केंद्रीय सांख्यकीय संगठन के आंकड़ों पर क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीस द्वारा भी संदेह व्यक्त किया जाने लगा है जिसके बाद सरकार पर और भी दबाव बढ़ने वाला है क्योंकि अभी भी नकारात्मक वृद्धि दर और अन्य कारणों से देश की अर्थ व्यवस्था में कोई बड़ा उछाल दिखाई नहीं दे रहा है ? मोदी ने सत्ता सँभालने के बाद जिस तरह से आधार वर्ष में परिवर्तन कर देश के विकास की रफ़्तार को तेज़ दिखाने का प्रयास किया था आज की परिस्थिति में वह भी सफल नहीं हो पाया है और जिस मनमोहन सरकार पर काम न करने का आरोप मोदी और भाजपा लगाया करते थे नए पैमाने के अनुसार २०१३-१४ की विकास दर ६.९ हो गयी जबकि २०१४-१५ की विकास दर ७.४ ही रहने का अनुमान है. इस निराशाजनक परिस्थिति में चिंता कि बात यह भी है कि मूडीस ने भी भारतीय सांख्यकीय संगठन की निर्धारण नीति को दोषपूर्ण माना है और यह कहा है कि यह दर अर्थ व्यवस्था के अन्य संकेतों के अनुरूप बिलकुल भी नहीं है. जब देश में के पूर्ण बहुमत की सरकार हो और देखने सुनने में ऐसा ही लग रहा है कि वह बहुत सक्रियता के साथ जुटी हुई है तो उस स्थिति में ऐसे आंकड़ें वास्तव में चिंता उत्पन्न करते हैं पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार मोदी और मनमोहन की २७ मई की मुलाकात भी संभवतः आर्थिक मुद्दे और विदेश नीति पर चर्चा के लिए ही हुई थी क्योंकि मोदी को आर्थिक मोर्चे पर कोशिशें करने के बाद भी अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाये हैं. ऐसी परिस्थिति में पिछ्ले २४ वर्षों से देश की अर्थव्यवस्था पर नज़रें लगाये मनमोहन सिंह से अच्छी सलाह संभवतः मोदी को कोई और दे भी नहीं सकता है.          
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